पीआर एजेंसियों का खेल: चुनिंदा पत्रकारों के जरिए हो रहा मीडिया संस्थानों को करोड़ों का नुकसान

आजकल फिल्म प्रमोशन, नए उत्पादों की ब्रांडिंग, शोरूम की ओपनिंग और प्रेस कॉन्फ्रेंस जैसे कार्यक्रमों के लिए पीआर (पब्लिक रिलेशंस) एजेंसियों का महत्व बढ़ता जा रहा है। इन एजेंसियों का काम होता है कि वे कंपनियों से भारी रकम लेकर उनके प्रचार को मीडिया के माध्यम से आम जनता तक पहुँचाएं। दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में सक्रिय ये पीआर एजेंसियां कंपनियों से करोड़ों रुपये वसूलती हैं, लेकिन मीडिया संस्थानों तक यह पैसा नहीं पहुँचता। इसके बजाय, एजेंसियां अपने कुछ चुनिंदा पत्रकारों के माध्यम से काम कराती हैं और उन्हें उनकी “हैसियत” के अनुसार “लिफाफा” यानी नकद राशि दी जाती है।
एक हालिया घटना में, दिल्ली के एक फिल्म निर्माता ने बताया कि उन्होंने अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए एक पीआर एजेंसी को 80 लाख रुपये दिए, लेकिन उन्हें इसका कोई संतोषजनक परिणाम नहीं मिला। पीआर एजेंसियां प्रचार का सारा काम कुछ गिने-चुने पत्रकारों के माध्यम से ही कराती हैं, जबकि टीवी चैनल या अखबार के कार्यालय तक इसका कोई वित्तीय लाभ नहीं पहुँचता। यदि मीडिया संस्थान अपने पत्रकारों को निर्देशित करें कि वे पीआर एजेंसियों से सीधे संपर्क में न रहें और किसी भी प्रकार की कवरेज के लिए संस्थान को सूचित करें, तो इससे मीडिया संस्थानों के पास प्रतिमाह करोड़ों रुपये का अतिरिक्त राजस्व आ सकता है।
मीडिया संस्थानों में फिल्म कलाकारों की उपस्थिति: एक छलावा
पीआर एजेंसियों का एक और खेल है फिल्म प्रमोशन के लिए कलाकारों को मीडिया संस्थानों में भेजना। टीवी चैनल या अखबार के कार्यालय को लगता है कि उनके यहाँ फिल्म के कलाकार, यानी हीरो-हीरोइन, आए हैं तो यह उनकी प्रतिष्ठा में इजाफा करता है। लेकिन इसके पीछे का सच अक्सर अनदेखा रह जाता है। असल में, पीआर एजेंसियां पहले ही फिल्म निर्माता से अच्छी-खासी रकम वसूल चुकी होती हैं और यह सिर्फ मीडिया में मुफ्त कवरेज हासिल करने का एक तरीका होता है।
मीडिया संस्थान इस भ्रम में रहकर खुश हो जाते हैं कि उन्हें एक्सक्लूसिव इंटरव्यू या कलाकारों की विजिट का मौका मिला है, जबकि इसकी असल कीमत निर्माता पहले ही पीआर एजेंसी को चुका होता है।
वरिष्ठ पत्रकार एवं इंडियन मीडिया वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष राजीव निशाना का मानना है की यह समय है कि मीडिया संस्थान इस प्रवृत्ति को समझें और अपनी नीतियों में बदलाव करें। वे पीआर एजेंसियों से बातचीत कर फिल्म प्रमोशन के लिए कवरेज को सशुल्क सेवा के रूप में स्थापित करें। इससे न केवल मीडिया संस्थानों को वित्तीय लाभ होगा, बल्कि पत्रकारिता का स्तर भी बरकरार रहेगा।